वो ठट्ठा मार कर हंस रहे थे और मैं शर्म से लथपथ ज़मीन में गड़ा जा रहा था, हर पल, निरंतर, लगातार... क्या कहूं, कैसे जवाब दूं, सब कुछ समझ से परे हो गया था। उन्होने कुछ इस अंदाज़ में कहा था कि मुझे लगा मेरे कानों में खौलता-पिघला सीसा उतार दिया गया हो. एक-एक शब्द नश्तर की मानिंद मेरी आत्मा को लहुलुहान करता जा रहा था. काश, ये ट्रेन पटरियों की बजाय मेरे सिर पर से गुज़र रही होती. वो 4 थे. पांचवीं सीट मेरी थी. और छठी सीट पर एक सांवली लेकिन बेइंतहा खूबसूरत...
पुरी कहानी मीडिया ख़बर.कॉम पर । लिंक : http://mediakhabar.com/topicdetails.aspx?mid=29&tid=781
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