भारतीय लोकतंत्र ने हमें अभिव्यक्ति की आज़ादी दी, लेकिन इसी आज़ादी ने मीडिया के क्षेत्र में कुछ लोगों को उन्माद भी दिया। यह वही ‘उन्माद था जिसके तमाम संवेदन-शीलता, जवाबदेही और आत्मनियमन की लक्ष्मण रेखा पार कर किसी भी शिक्षिका की सरे-आम बेइज़्ज़ती करने के उद्देश्य से उसके कपड़े फाड़ सकता था, आचार-संहिता का उल्लंघन कर सकता था, औरतों की मंडी से कमला जैसी महिला को खरीद कर ‘सेंसेशनल जर्नलिज्म’ की देह को गरमा सकता था। पुरा लेख
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