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Friday, February 19, 2010

मीडिया में मूल्यों की मौत

पिछले हफ्ते शादी में शरीक होने आए एक बुजुर्ग ने परिचय के बाद जब ये सुना कि मैं भी मीडिया से बावस्ता हूं तो अचानक उनका तेवर बदल गया। उन्होंने पूरी जोड़दार आवाज़ में दहाड़ना शुरु किया ”तुम लोग अपने आप को समाज के ठेकेदार समझते हो, मगर कभी अपने गिरेबां में झांककर देखते भी हो, एक कैमरा और माइक हाथ में क्या मिल गया कि अपने आप को पुलिस से भी बड़ा समझने लगे। जिसकी मर्जी उसकी सरे बाज़ार टोपी उछाल दी। जो मन में आया बकवास कर दिया। और ख़बर बना दी। सत्यवादी हरिश्चंद्र के उत्तराधिकारी बनते हो और इन्हीं के मालिक शाम ढलते ही चंदा मांगने आते हैं या फिर डील का ऑफर लेकर आ धमकते हैं। उस वक्त कहां जाती हैं वो हेकड़ी और वो सच दिखाने का दावा। “

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