मीडिया से टकराव का रास्ता: इस वक्त सरकार के निशाने पर देश के दो बडे मीडिया संस्थान है । दोनों संस्थानों को लेकर सरकार के भीतर राय यही है कि यह विपक्ष की राजनीति को हवा दे रहे हैं । सरकार के लिये संकट पैदा कर रहे हैं । वैसे मीडिया की सक्रियता में यह सवाल वाकई अबूझ है कि जिस तरह के हालात देश के भीतर तमाम मुद्दों को लेकर बन रहे हैं उसमें मीडिया का हर संस्थान आम आदमी की परेशानी और उसके सवालों को अगर ना उठाये, तो फिर उस मीडिया संस्थान की विश्वनीयता पर भी सवाल खड़ा होने लगेगा। लेकिन सरकार के भीतर जब यह समझ बन गयी हो कि मीडिया की भूमिका उसे टिकाने या गिराने के लिये ही हो सकती है, तो कोई क्या करे?इसलिये मीडिया के लिये सरकारी एडवाईजरी में जहां तेजी आई है,वहीं जिन मीडिया संस्थानो पर सरकार निशाना साध रही है उसमें निशाने पर वही संस्थान हैं,जिनका वास्ता विजुअल और प्रिंट दोनों से है। साथ ही उन मीडिया संस्थानो के दूसरे धंधे भी है। दरअसल, सिर्फ मीडिया हाउस चलाने वाले मालिकों को तो सरकार सीधे निशाना बना नहीं सकती क्योंकि इससे मीडिया मालिकों की विश्वनीयता ही बढ़ेगी और उनकी सौदेबाजी के दायरे में राजनीति आयेगी। जहां विपक्ष साथ खड़ा हो सकता है। फिर आर्थिक नुकसान की एवज में सरकार को टक्कर देते हुये मीडिया चलाने का मुनाफा भविष्य में कहीं ज्यादा बड़ा हो सकता है। लेकिन जिन मीडिया हाउसों के दूसरे धंधे भी हैं और अगर सरकार वहां चोट करने लगे तो फिर उन मीडिया हाउसों के भीतर यह सवाल खड़ा होगा ही कि कितना नुकसान उठाया जाये या फिर सरकार के साथ खड़े होना जरुरी है। और चूकिं यह खेल राष्ट्रीय स्तर के मीडिया घरानों के साथ हो रहा है तो खबरें दिखाने और परोसने के अंदाज से भी पता लग जाता है कि आखिर मीडिया हाउस के तेवर गायब क्यों हो गये?दरअसल पर्दे के पीछे सरकार का जो खेल मीडिया घरानों को चेताने और हड़काने का चल रहा है,उसके दायरे में अतीत के पन्नों को भी टटोलना होगा और अब के दौर में मीडिया के भीतर भी मुनाफा बनाने की जो होड है, उसे भी समझना होगा।
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