दस टकिये पत्रकारों का दर्द: "चुनाव के दौरान जिस तरह से मीडिया की दुकानदारी खुली उस पर बहस शुरू होना लाजमी था। प्रख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी ने भी मुहिम छेड़ी। पैसे लेकर खबर छापने के मसले पर राजनेताओं की तरह पत्रकारों में कोई पक्ष में तो कोई विपक्ष में खड़ा मिला। पूंजीपतियों के मीडिया हाउसों पर वैचारिक हमले से शायद ही उनकी मजबूत दीवारें ढहें ? बहस तो होनी ही चाहिये लेकिन वहीं एक बड़ा सवाल यह है कि मीडिया में कार्य करने वाले कस्बा से लेकर महानगर तक के पत्रकारों की माली स्थिति क्या ठीक है ? या उनके साथ जो शोषण हो रहा है उसके पक्ष में कौन खड़ा होगा ?
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